बिहार में इन दिनो जातिये रैली की होड़ मची हैं, इस होड़ में लोगो ने गांधी जी को भी नही बक्शा।बनिया जाति के लोगो ने गांधी के सहारे जातिये गोलबंदी के लिए एक रैली का आयोजन किया हैं जिसके मुख्य अतिथि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं।इससे पहले सहजानंद सरस्वती के बहाने भूमिहारो की रैली हुई जिसमें एक और लालू प्रसाद मुख्य अतिथि थे तो दूसरी और नीतीश कुमार।वही वीर कुंवर सिंह के बहाने राजपूतो को गोलबंदी करने के लिए भी रैली का आयोजन किया गया जिसमें लालू प्रसाद और नीतीश कुमार दोनो शामिल हुए।इसी तरह की रैली बह्रमण जाति द्वारा भी आयोजित किया गया ।और अम्बेदकर के बहाने तो बिहार में पिछले 14अप्रैल से रैलियो की बाढ आ गयी हैं कम से कम पटना मे ही चालीस से अधिक कार्यक्रमो का आयोजन किया गया जिसमें सारे नेता भाग लिये।पिछले महिने राम मनोहर लोहिया और ज्योतिवा फूले के बहाने भी कई कार्यक्रमो का आयोजन किया गया था।
कहने का मतलव यह हैं कि देश के महापुरुषो की जाति जाननी हो तो बिहार आ जाये एक वर्ष में आप कौन से नेता किस जाति के हैं उसका सारा बायोडाटा आपको मिल जायेगा।
यह प्रसंग इसलिए छेड़ रहा हूं कि इस दौरान दो बड़ी बाते हमारे सामने आयी जिससे लगा कि इन राजनीतिज्ञो के कारण बिहार के समाज को कितना नुकसान हो रहा हैं।दो दिन पहले की बात हैं किसी न्यूज के सिलसिले में निकले थे और मोबाईल से कही बात कर रहे थे ।इसी दौरान मेरे पीछे वाले सीट पर बैंठे कैमरामेंन ने बड़ी उत्साहित होकर कहा।ऐ भैया वीर कुवंर सिंह बाबूये साहब हैं हम नही जानते थे।पहले तो मुझे काफी जोर से हंसी आयी और उसके बाद अचानक मैं खामोश हो गया मोबाईल काटा और पीछे मुड़कर कैमरामैंन से पुछा तो क्या हुआ तो बड़ी सहज भाव से कहता हैं नही भैया हम नही जानते थे की वीर कुवंर सिंह राजपूत थे रैली का कभरेज करने गये थे तो वही पता चला कि राजपूत हैं।दूसरी घटना कल की हैं एक मई को महान समाजवादी मधुलमिये की जंयती थी।मधुलमिये रहने वाले तो महाराष्ट्र के थे लेकिन समाजवादी विचार का प्रचार प्रसार बिहार में किये और ये भागलपुर से सांसद भी बने।कल इनकी जंयती ए0एन0सिन्हा संस्थान के छोटे से सभागार में मनाया गया।सभागार की अधिकांश कुर्शिया खाली थी लोग आ जा रहे थे मंच पर कोई ऐसा लीडर मौंजूद नही था जिसे देखकर पहचाना जाय।बाहर आने पर कुछ छात्र खड़े थे जो मधुलमिये के बारे में बड़ी गम्भीरता से बाते कर रहे थे।मुझे अच्छा लगा कि नयी पीढी भी मधुलमिये के विचार धाराओ को लेकर संवेदनशील हैं। लेकिन अचानक मेरा कदम ठहर सा गया उन लड़को में से एक कह रहा था कि बिहार की समाजवादी राजनीत में लोहिया से कही बड़ी भूमिका मधुलमिये की रही हैं लेकिन इन्हे याद करने वाले कोई नही हैं। क्योकि इसकी कोई वैसी जाति नही हैं जिसके सहारे राजनीत की जा सके।नयी पीढी के इन छात्रो की बात सुनकर में हैरान रह गया और मुझे पहली बार एहसास हुआ कि जातिवादी राजनीत ने बिहारी समाज को कितना घायल कर दिया हैं।
क्या वीर कुवंर सिंह ने अग्रेजो से लोहा लेते हुए कभी सोचा भी होगा की बाद के दिनो में इन्हे लोग 1857के क्रांति के नायक के रुप में नही, एक राजपूत होने के नाम पर उन्हे याद किया जायेगा।कभी मधुलमिये के जेहन में यह सवाल उठा होगा कि जिस पिछड़ी जाति के सम्मान की लड़ाई वे लड़ रहे हैं उनकी आने वाली पीढी उनके बलिदान को इसलिए याद नही करेगी कि वे उनकी जाति के नही हैं।
मुझे तो लगता हैं कि हमलोगो ने इतिहास से सबक नही लिया जिस तरीके से समाज को राजनीतिज्ञ जाति और मजहब के नाम पर बाट रहे वह दिन दूर नही हैं जब सौ अक्रमणकारी पूरे देश को रौदते हुए इतिहास को दोहराह दे।
143. अरविंद घोष
13 घंटे पहले
1 टिप्पणी:
यही तो अफ़सोस है कि यहाँ के लोगों ने महापुरुषों को भी जाति व धर्म के आधार पर बाँट दिया है |
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