चार माह पूर्व जब राज्य के अवकारी मंत्री ने नीतीश कुमार पर घोटाले का आरोप लगाया था, तो नीतीश कुमार ने मीडिया के सामने पूरे दंभ के साथ कहा था कि देश में कोई ऐसा टकसाल नही बना है जो नीतीश को खरीद सके।लेकिन हाईकोर्ट के गम्भीर टिप्पणी ने नीतीश कुमार के दंभ को चकनाचूर कर दिया है।और पिछले तीन दिनो से चेहरा छुपाये फिर रहे हैं।शुक्र मीडिया का जो नीतीश के असली चेहरा को छुपाने के लिए अपनी सारी मर्यादओ को ताख पर रख दिया है।
खैर नीतीश को लेकर मेरी राय आज भी वही है जो दो वर्ष पूर्व थी जिसको लेकर मेरे मित्र काफी नराज रहा करते थे।हाईकोर्ट के सीबीआई जांच के आदेश के बाद भी तरह तरह के विचार सामने आ रहे हैं और नीतीश कुमार को पाक साफ दिखाने की होड़ मची है।अब जरा आप भी इस महाघोटाले के बारे में समझने का प्रयास करे आखिर यह महाघोटाला है क्या।हलाकि इस घोटाल में लालू राबड़ी की भी उतनी ही भागीदारी है। लेकिन दोनो इस घोटाले में शामिल है इसलिए दोनो के दोनो खामोश है।
राज्य सरकार के अधिकारी ट्रेजरी से वर्ष 2002 से वर्ष 2008के बीच विकास कार्य और कल्याणकारी योजनाओ के लिए 11,924.44हजार करोड़ रुपया अग्रिम लिया लेकिन पिछले छह वर्षो के दौरान मात्र 511.90करोड़ रुपया का ही हिसाब महालेखागार को भेजा है।शेष 11,412,54हजार करोड़ रुपया के खर्च का कोई हिसाब सीएजी को नही दी गयी हैं.सीएजी लगातार विधानसभा को इस वित्तिय गोलमाल से सूचित करता रहा।इसी वर्ष जनवरी में सीएसजी ने एक विस्तृत रिपोर्ट विधान सभा के पटल पर रखा जिसमें सरकारी राशी के बड़े पैमाने पर लूट खसोट की बात करते हुए सरकार को अगाह किया। वही पैसे का कोई हिसाब नही देने के कारण केन्द्र सरकार बिहार के आवंटित राशी पर रोक लगा दिया मुख्यमंत्री ने राशी रोके जाने को मुद्दा बना दिये लेकिन इतने बड़े पैमाने पर राशी के दुरउपयोग पर चुप्पी साधे रहे।इस मामले में विधानसभा की लोकलेखा समिति ने जमकर हंगामा किया और मुख्यमंत्री और वित्तमंत्री सुशील मोदी से तत्तकाल इस मसले की गम्भीरता को देखते हुए कारवाई का आदेश निर्गत करने की मांग की।लेकिन छह माह तक सरकार के कान में जू तक नही रेंगी।वही हाईकोर्ट ने सीएजी की रिपोर्ट पर आधारित जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सीबीआई जांच का आदेश निर्गत कर दिया।हाईकोर्ट की इस कारवाई के बाद सरकार सक्ते में है और कल मुख्यमंत्री ने बिहार के सभी डीएम को राशी के उपयोग का प्रमाण पत्र 24जुलाई तक सौपने का निर्देश जारी किया है।अगर वर्ष 2002से वर्ष 2010तक की राशी को जोड़े तो यह मामला बीस हजार करोड़ से अधिक का बनता है।सबसे महत्वपूर्ण बाते यह हैं कि ये सभी राशी गरीबो के उत्थान से जुड़ी योजनाओ के लिए अग्रिम ली गयी थी।
अब जरा इसकी कानूनी पहलुओ पर भी गौर कर ले कोई भी सरकारी पदाधिकारी किसी भी मद में अग्रिम राशी लेता है तो उसे छह माह के अंदर राशी के उपयोगिता का प्रमाण पत्र सौंप देना है। अगर आप नही सौपते हैं तो यह वित्तिय अपराध की के श्रेणी में आयेगा।वही किसी भी स्थिति में राशी अगर एक वर्ष के अंदर खर्च नही होती है तो उसे विभाग को लौटा देनी है लेकिन यहा तो छह छह वर्ष से लोग पैसे का हिसाब नही दे रहे जो गम्भीर वित्तिय अपराध की श्रेणी में आता है।अब आप ही बताये सरकार के मुखिया का क्या काम है आपके खजाने से पैसे निकल रहा है लेकिन पैसे का क्या हो रहा है उसका हिसाब कौन लेगा।चालीस के अधिक ऐसे मामले सामने आ चुके है जिसमें सरकारी पैसे का उपयोग निजी कार्यो मे करते हुए अधिकारी पकड़े गये हैं।तो सवाल यह उठता है कि जो सरकार जनता के मेहनत की कमाई के पैसे का हिसाब नही रख सकता है उसे गद्दी पर बने रहने का कोई हक है क्या।
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4 घंटे पहले
3 टिप्पणियां:
सच्चाई जो भी हो... फैसला आने में वक़्त लगेगा
"ज़ाहिर है ये गड़बड़ी नीतीश कुमार के सत्ता में आने के पहले से ही शुरु हो चुकी थी. नीतीश सरकार 2005 में सत्ता में आई थी."
------------- बीबीसी.
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2010/07/100715_bihar_scam_hc_vv.shtml
और
http://www.bbc.co.uk/hindi/news/2010/07/100716_bihar_reax_psa.shtml
वैसे यह कोई घोटाला नहीं है
यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि जिस 11412 करोड़ की अनियमितता को लेकर इतना बवाल मचा हुआ है यह कोई घोटाला नहीं है. यह सिर्फ बिहार के अफसरशाही की लापरवाही है. इस राशि का एक-एक रुपया खर्च किया गया है, मगर विकास की गति बढ़ाने में जुटी अफसरशाही खर्च राशि के बिल-वाउचर जुटाने में समय से जुट नहीं पाई. हो सकता है कि इस राशि के व्ययन में कुछ कमीशन खोरी हुई हो जो आजकल के प्रशासन की शास्वत प्रक्रिया बन गई है. मगर सरकारी काम काज से जुटा एक बच्चा भी यह समझ सकता है कि बेइमान से बेइमान सरकार भी सरकारी फंड की राशि बगैर खर्च किये अपनी जेब में डालने की मूर्खता नहीं करेगी. बेइमानी करने वाली सरकार कम से कम बिल-वाउचर दुरुस्त रखती है.योजना राशि का गबन नहीं करती. हां, काम करने वाली मशीनरी से बिल-बाउचर जुटाने में जरूर लापरवाही हो जाती है, क्योंकि उसका दिमाग टारगेट पूरा करने में लगा होता है, बिल वाउचर उसके लिए सेकेंडरी जिम्मेदारी होती है.
यहां गौरतलब है कि यह गड़बड़ी 2002 से 2008 के बीच की है. नीतीश सरकार 2005 में सत्ता पर काबिज हुई है, इससे पहले राबड़ी देवी की सरकार थी. यह चूक उस दौरान भी हुई थी. मगर राजद के मुखिया खुद अपनी सरकार की गड़बड़ियों का जबाव देने के बदले विधानसभा में उपद्रव करवाने में जुटे हैं. क्योंकि उन्हें मालूम है, उनका तो घोटालों का ट्रैक रिकार्ड है ही उनसे कोई नहीं पूछने वाला है.
कोर्ट ने अपना ही फैसला बदल दिया ! बड़े अफ़सोस की बात है के बिहार की सरकार ही नहीं बलके कोर्ट भी निकम्मी है |
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