मंगलवार, मई 22, 2012

बाजार में बिकने को सजधज कर तैयार हूं कोई खरीदोगे

पढाई पूरी करने के बाद हमारे पास कैरियर को लेकर कई विकल्प थे राजनीत,एनजीओ,और फिर सरकारी नौकरी के लिए जोर तोड़ करना।मैने सबसे पहले निर्णय लिया कि दिल्ली छोड़ना है गांव जाना है फिर कैरियर के बारे में सोचा जायेगा।दिल्ली से लौटने के बाद खेती करना शुरु किया और पूरी मन से ,नगदी फसल में ईख और गेहू की खेती से शुऱुआत किया और धीरे धीरे खेती के क्षेत्र में कई सफल प्रयोग भी किये। आज भी उसके लिए समय निकाल लेता हूं, लगता है देश के निर्माण में मेरी सार्थक भूमिका यही है।धीरे धीरे खेती में मन लगने लगा लेकिन कुछ कुछ खाली खाली पन महसूस होता रहता था। खासकर जब कोई परेशान व्यक्ति न्याय के लिए चौखट पर आता था या फिर कही अन्नाय होता दिखता था ।ऐसे में मुझे महसूस हुआ कि इतनी पहुंच होनी चाहिए कि सिस्टम को सही काम करने पर मजबूर कर सकू और इसी उम्मीद से पत्रकार बना ।तीन वर्षो तक आंचलिक पत्रकारिता किया और उस पूरे इलाके में पत्रकारिता का मायने बदल दिया। राजद के शासनकाल के बावजूद प्रशासन से लेकर विधायक और मंत्री तक हमारी बात को बड़ी अहमिएत देते थे। एक तो बेवाक लेखनी और दूसरा दिल्ली विश्वविधालय का जलवा।लेकिन यह समय ज्यादा दिनो तक नही चल सका औऱ  एक स्टोरी ने मेरी पूरी भूमिका को ही बदल दिया। मैंने एक स्टोरी लिखा किस तरीके से रोसड़ा प्रखंड के एक गांव में आये दिन जंगली भेड़िया बच्चे को मार रहा है और यह सिलसिला पिछले पाच वर्षो से चल रहा है। स्थिति यह हो गयी थी कि गर्भवती महिलाये बच्चे देने का समय आने पर अपने मायके चली जाती थी फिर भी पचास से अधिक बच्चे जंगली भेड़िया का शिकार हो चुका था। इस स्टोरी के छपने के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की टीम उस गांव के दौरे पर आयी ।जिस दौरान बिहार के बड़े पत्रकार गुंजन सिन्हा जी से मुलाकात हुई और उन्होने मुझे ईटीवी में काम करने को कहां ।मेरी पहली पोस्टिंग दरभंगा हुआ फिर भी खेती के साथ साथ पत्रकारिता भी जारी रहा और मुझे गर्व है कि दरभंगा जैसे जगह में जहां घर घर में बड़े बड़े पत्रकार है आज भी दरभंगा छोड़ने के चार वर्ष बाद भी गांव गांव से फोन आता है और आम लोग शिद्दत से याद करते है और पत्रकारिता की दुहाई देते हैं।आज भले ही मैं पटना में सीएम से लेकर डीजीपी  तक को कभर कर रहा हूं लेकिन लगता है जैसे मेरी हैसियत कोठे के बाई से भी बदतर है हर कोई बोली लगाने को तैयार रहता है मानो बजार में मेरी यही पहचान हो।कसवे से राजधानी तक के इस सफर में मैं तो पत्रकार बन गया, लेकिन पत्रकारिता वही छूट गयी देखते है इस द्वव्द के साथ कब तक जीते हैं।
यही हलात है कुछ समझ में नही आ रहा है