सोमवार, अक्तूबर 06, 2008

बेबस कलम

वो भी दिन थे जब कलम चलती थी तो नगाड़े का शोर भी दब जाता था। समय का पहिया घूमता रहा और अब वही कलम तूती की आवाज भी नही बन पा रही है । शायद मेरा ये ब्लॉग बहरी व्यवस्था के कानो की मोटी चमड़ी के पार जा सके। कुछ ऐसे ही इरादों के साथ आपके सामने आया हूँ । आज बस शुरुआत, आगे ढेर सारा जहर उगलना बाकी है ।