शुक्रवार, दिसंबर 19, 2008

मेरे पागल पिया

मैं लव्जों में कुछ भी इजहार नही करती इसका मतलब ये नही की मैं तुझे प्यार नही करती चाहती हुँ मैं तुझे आज भी पर , तेरी सोच में अपना वक्त वरवाद नही करती तमाशा न बन जाये कही मोहब्बत मेरी इसलिए अपने दर्द को नामोदार नही करती जो कुछ मिला है उसी में खुश हु मैं, तेरे लिए खुदा से तकरार नही करती, पर कुछ तो बात हैं तेरी फितरत में जालिम, वरना मैं तुझे चाहने की खता बार बार नही करती। सामाजिक मान्यताओं के द्वन्द से जुझ रही यह एक ऐसी लङकी की व्यथा हैं जिसका होने वाला पति शादी के पूर्व साथ साथ शादी की खरीदारी करना चाहता हैं।एक दूसरे के पसंद का सेरवानी और लहंगा चुनङी लेना चाहता हैं। लेकिन सामाजिक मान्यताओं के आगे विवश हैं,क्यों कि इस युग में भी इसकी इजाजत नही हैं।शादी की खरीदारी को लेकर अभी भी लङकियों के पसंद का कोई मतलव नही हैं।लङके वाले आज भी शादी की खरीददारी में होने वाली बहु या फिर भाभी की दखल अंदाजी पसंद नही करती हैं।लङके को थोङी आजादी अवश्य मिली हैं अब वे अपने पंसद के कपङे और अन्य सामग्री खुद खरीदने लगे हैं।लेकिन जिसके साथ जिंदगी की नयी पारी शुरु करनी हैं उसकी पंसद का आज भी कोई मतलव नही हैं।किस कलर और डीजाईन का टीवी,फ्रिज,वाशिंग मशीन,कार और किचेन की सामग्री लेनी हैं आज भी इसकी खरीदारी में लङकी की राय नही ली जाती हैं।इस मामले में कोई लङका अपने होने वाली पत्नी के इक्छा का ख्याल भी करता हैं तो दोनों पक्ष इस मामले में उसकी दखलअंदाजी पसंद नही करते हैं।खुलेपन के इस दौङ में भी 99 प्रतिशत लङके और लङकिया जीवन शादी अपने पसंद से खोजने के रिक्स से आज भी बच रहे हैं।इसका यह मतलव कतई नही हैं कि आज के अभिभावक अपनी दलील जिस तरह से उनके अभिभावक ने थोपा उसी तरह से आप भी बच्चों पर थोपते रहे।टेकनोलोजी बदली हैं बच्चें आत्मनिर्भर हो रहे हैं।ऐसे में बच्चों की राय को अहमियत दी जानी चाहिए नही तो आने वाले समय में जीवन साथी पंसद करने के अधिकार पर भी सवाल खङे होने लगेगे।और उस हलात में अभिभावक की यह आखिरी बंदिश भी तास की पत्तों की तरह बिखर जायेगा।समय के साथ साथ अपने मान्यताओं में बदलाव को स्वीकार करते हुए चलने की आदत आज के अभिभावकों को ङालनी चाहिए।

रविवार, दिसंबर 07, 2008

नेता जी आपके रहबरी का सवाल हैं

दिलों में लावा तो था लेकिन अल्फाज नहीं मिल रहे थे । सीनों मे सदमें तो थे मगर आवाजें जैसे खो गई थी। दिमागों में तेजाब भी उमङा लेकिन खबङों के नक्कारखाने में सूखकर रह गया । कुछ रोशन दिमाग लोग मोमबत्तियों लेकर निकले पर उनकी रोशनी भी शहरों के महंगे इलाकों से आगे कहां जा पाई । मुंबई की घटना के बाद आतंकवाद को लेकर पहली बार देश के अभिजात्य वर्गों की और से इतनी सशंक्त प्रतिक्रियाये सामने आयी हैं।नेताओं पर चौतरफा हमला हो रहा हैं। और अक्सर हाजिर जवाबी भारतीय नेता चुप्पी साधे हुए हैं।कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि आजादी के बाद पहली बार नेताओं के चरित्र पर इस तरह से सवाल खङे हुए हैं।इस सवाल को लेकर मैंने भी एक अभियाण चलाया हैं। उसकी सफलता आप सबों के सहयोग पर निर्भर हैं।यह सवाल देश के तमाम वर्गो से हैं। खेल की दुनिया में सचिन,सौरभ,कुबंले ,कपिल,और अभिनव बिद्रा जैसे हस्ति पैदा हो रहे हैं । अंतरिक्ष की दुनिया में कल्पना चावला पैदा हो रही हैं,।व्यवसाय के क्षेत्र में मित्तल,अंबानी और टाटा जैसी हस्ती पैदा हुए हैं,आई टी के क्षेत्र में नरायण मुर्ति और प्रेम जी को कौन नही जानता हैं।साहित्य की बात करे तो विक्रम सेठ ,अरुणधति राय्,सलमान रुसदी जैसे विभूति परचम लहराय रहे हैं। कला के क्षेत्र में एम0एफ0हुसैन और संगीत की दुनिया में पंडित रविशंकर को किसी पहचान की जरुरत नही हैं।अर्थशास्त्र की दुनिया में अमर्त सेन ,पेप्सी के चीफ इंदिरा नियू और सी0टी0 बैक के चीफ विक्रम पंडित जैसे लाखो नाम हैं जिन पर भारता मां गर्व करती हैं। लेकिन भारत मां की कोख गांधी,नेहरु,पटेल,शास्त्री और बराक ओमावा जैसी राजनैतिक हस्ति को पैदा करने से क्यों मुख मोङ ली हैं।मेरा सवाल आप सबों से यही हैं कि ऐसी कौन सी परिस्थति बदली जो भारतीय लोकतंत्र में ऐसे राजनेताओं की जन्म से पहले ही भूर्ण हत्या होने लगी।क्या हम सब राजनीत को जाति, धर्म और मजहब से उपर उठते देखना चाहते हैं।सवाल के साथ साथ आपको जवाब भी मिल गया होगा। दिल पर हाथ रख कर जरा सोचिए की आप जिन नेताओं के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं उनका जन्म ही जाति धर्म और मजहब के कोख से हुआ हैं और उसको हमलोगो ने नेता बनाया हैं।ऐसे में इस आक्रोश का कोई मतलव हैं क्या। रगों में दौङने फिरने के हम नही कायल । ,जब आंख ही से न टपके तो फिर लहू क्या हैं। ई0टी0भी0पटना