
बुधवार, मई 27, 2009
आइ0आइटी में बिहार का परचम लहराया

रविवार, मई 24, 2009
ममता,माया और जयललिता का राजनैतिक सफर



शुक्रवार, मई 15, 2009
लोकतंत्र के नाम पर सब कुछ जायज हैं।
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में 15वी लोकसभा का चुनाव कई मायनों में यादगार रहेगा।
आजादी के बाद यह पहला लोकसभा चुनाव रहा जिसमें किसी भी राजनैतिक दल के पास कोई मुद्दा नही था।जब कि मंहगाई चरम पर हैं लेकिन किसी भी राजनैतिक दल ने इस मुद्दे को लेकर मनमोहन की सरकार को घेरने का प्रयास नही किया।वामपंथी जो चुनाव से पूर्व परमाणु डील के मुद्दे पर सरकार गिराने को आमदा थे चुनाव में इस मुद्दे को लेकर चर्चाये भी नही हुई।मुंबई में बिहारियों के पिटाई के मामले में जद यू के सांसद अपने पद से त्यागपत्र दे दिये थे लेकिन चुनाव में इस मसले को लेकर चर्चाये तक नही हुई।आये दिन लोगो की नौकरी जा रही हैं लेकिन यह किसी भी राजनैतिक दल के लिए कोई मुद्दा नही रहा कहने का यह मतलब हैं कि जनता के सरोकार से जुङे मुद्दे को लेकर कोई भी राजनैतिक दल चुनावी मैदान में नही आये थे ऐसे में मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग नही किया तो कौन सा गुनाह किया।वही इस चुनाव का दूसरा पहलु यह रहा कि चुनावी हिंसा में कही से भी किसी के हताहत होने की खबर नही आयी नक्सलीयों ने तबाही मचाने का प्रयास जरुर किया लेकिन कुछ खास कामयाबी उसे भी नही मिला।कहने का यह तातपर्य हैं कि राजनैतिक दल के गैर लोकतांत्रिक आचरण के बावजूद जनता ने मर्यादित होकर अपने मताधिकार का प्रयोग किया लोकतंत्र के बेहतरी के लिए किया ।लेकिन चुनाव परिणाम के आहट के साथ ही जिस तरीके से दिल्ली के सिंहासन के लिए चौसर में दाव लग रहा हैं भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नही हैं।चुनाव खत्म होते ही राजनेता वह सब कुछ भूल गये जो कुछ चुनाव अभियान के दौरान जनता के सामने वादा किया था।बिहार के मुख्यमंत्री अपने ही गठबंधन के नेता नरेन्द्र मोदी को बिहार आने पर प्रतिबंध लगा दिया था लेकिन चुनाव खत्म होते ही दोनो गले मिल रहे हैं। नीतीश कुमार पर भरोसा करने वाले अल्पसंख्यक मतदाताओं को आज क्या महसूस हो रहा होगा इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं।यही स्थिति कांग्रेस का हैं जिन्होने बिहार की जनता से चुनाव के दौरान लालू को मदद करने को लेकर माफी मांगा था लेकिन चुनाव खत्म होंते ही आज एक दूसरे को गले लगा रहे हैं।लालू प्रसाद से अलग हुए अल्पसंख्यक मतदाता और नीतीश के सामंती कार्यशैली से क्षुब्द मतदाताओ का क्या हाल होगा जो कांग्रेस को खुलकर वोट दिया।भारतीय इतिहास में सत्ता के लिए सबसे बङा संग्राम महाभारत को माना जाता हैं जहां सत्ता पर काबिज रहने के लिए सभी तरह के मर्यादाओं को ताक पर रख दिया गया था।लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में जहां जनता की भागीदारी से सरकार बनती हैं इस दौङ में भी सत्ता के लिए इस तरह का खेल क्या जायज हैं।यह एक यक्ष सवाल हैं क्या यही लोकतंत्र हैं।
रविवार, मई 03, 2009
इतिहास नीतीश को दूसरे औरंगजेब के रुप में याद रखेगा
राजनैतिक विशलेषको और भाजपा जद यू के हल्ला बोल पार्टी और मीडिया के एक बङे तबके की माने तो नीतीश की आंधी पूरे सूबे में चल रही हैं।कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि बिहार में 1977वाली लहर चल रही हैं।परिणाम जो भी हो लेकिन इस बार के चुनाव में बिहार की जनता ने लालू और रामविलास पासवान के राजनैतिक कैरियर पर विराम लगाने का प्रयास अवश्य किया हैं।पिछले कई दशक से जातिये राजनीत के बल पर बिहार की जनता के दिल पर राज करने वाले इन दोनों नेताओं की यह शायद आखिर पारी न साबित हो। कहने का यह मतलब हैं कि बिहार में जातिये समीकरण पर चुनाव लङने की वर्षों पुरानी शैली का अंत होता दिख रहा हैं ऐसे में अब जातिये नारो पर बिहार में राज करना सम्भव होता नही दिख रहा हैं।जो भी हो बिहार वाकई बदल रहा हैं और अपने गौरवशाली इतिहास की और लौटने की प्रवृति बलवति होती दिख रही हैं।चुनाव के जो भी परिणाम हो लेकिन बिहार के लोगो ने नीतीश कुमार के तथाकथित सुशासन और विकास के दावे को भी लोगो ने सिरे ने नकार दिया हैं।1962के बाद बिहार में सबसे कम पोलिंग इसी चुनाव में हुआ है।लोगो ने काग्रेस को हाथों हाथ लिया जहां कांग्रेस का कोई नाम लेवा नही था वही आज सभी वर्गो के जुवान पर कांग्रेस का नाम हैं।लालू और रामविलास के हार का कारण भी कांग्रेस ही बनेगा।हो सकता हैं कि बिहार में कांग्रेस खाता भी नही खोल सके लेकिन एक बङी ताकत के रुप में जरुर उभर कर सामने आयेगा जो नीतीश और लालू राम विलास तीनों के लिए शुभ संकेत नही हैं।नीतीश कुमार फले ही ऐतिहासिक जीत दर्ज करे लेकिन बिहार की शिक्षा व्यवस्था को चौपट करने के लिए इन्हे याद किया जायेगा।वही बिहार की राजनीत में जिस तरह से इन्होने मौका परस्ति और जातिये राजनीत के आङ में राजनीत का जो धिनौना खेल खेला हैं इतिहास औरंगजेब के बाद इन्हे शिद्दत से याद करेगा।जिस जार्ज ने लालू के अंहकार के खिलाफ बिहार में पार्टी खङी की और लालू प्रसाद को सत्ता से बेदखल किया उनके साथ नीतीश का व्यवहार शायद राजनीत का सबसे घिनौना चेहरा साबित होगा ।हो सकता हैं इस बार मुजफ्फरपुर में जार्ज की जमानत भी नही बचे लेकिन चुनाव अभियान के दौरान बिहार की जनता के सामने एक यक्ष सवाल जरुर खङा कर दिया हैं।क्या राजनीत में मौका परस्ति अनिवार्य हैं।जार्ज और दिग्विजय सिंह के साथ नीतीश कुमार को जो व्यवहार रहा शायद इस चुनाव का सबसे दुखद पहुली माना जायेगा।नीतीश भले ही ऐतिहासिक जीत दर्ज कर भारतीय राजनीत में एक नये क्षंत्रप के रुप में स्थापित हो जाये। लेकिन इनका यह मौका परस्ति इनके राजनैतिक सफर के अंत के लिए मील का पत्थर न कही शाबित हो जाये।
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