इतिहास की और देखे तो पत्रकारिता के संदर्भ में बङी बङी बाते लिखी गयी हैं।
प्रेस की आजादी पर जब किसी हुकूमत ने सिकंजा कसने का प्रयास किया आम लोगो तक की तीखी प्रतिक्रियाये सामने आयी हैं।
प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने का अर्थ है अपने पैरों में बेङिया डालना
(जार्ज सदरलैंड)
स्वतंत्र प्रेस के बिना स्वतंत्र देश की कल्पना नहीं की जा सकती हैं।
(ब्लैक स्टोन)
ऐसी कई वाकिया हैं जब इस तरह की प्रतिक्रियायें सामने आयी।लेकिन इस बार स्थिति थोङी भिन्न हैं,पिछले कई माह से मीडिया पर सिंकजे कसने की बात सामने आ रही हैं।लेकिन पहली बार मीडियाकर्मीयों को समाज से वह समर्थन नही मिल पा रहा हैं।
यह वेहद गम्भीर स्थिति हैं क्यों कि मीडिया समाज के भरोसे पर काम करती हैं अगर भरोसा खत्म हो गया तो फिर कुछ नही बचेगा।ऐसे हलात में मनमोहन सिंह को कानून बनाने की जरुरत भी नही पङेगी।सेल्फ डिसीपीलीन की बात की जा रही हैं।ऐसे जानवरो से जिन्हे मानव के खून का स्वाद चखने की आदत पङ गयी हैं।उलटे अब इस सेल्फ डिसीपीलीन नामक हथियार का उपयोग प्रबंधक वैसे पत्रकारो के खिलाफ कर रहे हैं जो पत्रकारिता के मर्म को जीवित रखने के लिए संघर्ष कर रहा हैं।मेरा मानना हैं कि बाजारबाद के इस दौङ में जब सब कुछ बाजार ही तय करती हैं तो मीडियाकर्मीयों से आरजु विनती हैं कि इस लङाई में अपनी प्रतिष्ठा दाव पर मत लगाये।चंद पैसे के बल पर रोजाना सैकङो पत्रकारों के भावनाओं को अपने पैर की जूति मानने वाले मीडिया हाउस के
प्रबंधक को सामने आने दे जिन्होंने अखबार और चैनल के संपादक को अपने हरम की पटरानी बनाकर रख दिया हैं।माफ करना मीडिया के बंधु अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करने का वक्त आ गया हैं।या तो आप वक्त से समझौते करके काम करे और सम्भव हो तो कुछ अपने जमीर के लिए समय समय पर कुछ कुछ करते रहे।नही तो हल्ला बोले चाहे इसके लिए जो भी माध्यम अपनाना पङे।कागज के टुकङे पर लिखी बात भी बङे बङे अखवार और चैनलो पर चलने वाली खबङों से कही अधिक प्रभावि हो सकता हैं।
हल्ला बोल आज के सम्पादकीय टीम पर,प्रबंधन पर और देश के पोलिटिसियन पर। जनता आप के साथ हैं।