रविवार, फ़रवरी 08, 2009

क्या वाकई बिहार बदल रहा हैं।

बिहार और बिहारियों से नफरत करने वालो के लिए बङी ही सकुन देने वाली खबरें हैं।आजादी के बाद पहली बार बिहार एक साथ कई मोर्चों पर देश में अपनी अलग पहचान स्थापित की हैं।बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार देश के पांच राजनैतिक महारथियों को पछाङते हुए पाँलिटीशियन आँफ द इयर का अवार्ड हासिल किया हैं।पिछङने वालो में दिल्ली की मैट्रों क्यून और विकास पु्त्री मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी हैं।वही दसूरी और नागरिक केद्रित सेवा प्रदान करने के लिए बिहार को 2008-2009का राष्ट्रीय इ-गवर्नेस पुस्कार मिला हैं।संयोग हैं कि यह पुरस्कार सरकार द्वारा आयोजित एक भव्य समारोह के दौरान गोवा में दी जायेगी जहां के मुख्यमंत्री बिहार से गोवा के लिए सीधी ट्रेने खुलने पङ बङी हाय तौबा मचाये थे।इससे भी बङी खबङ यह हैं कि बिहार को पहली बार बिमारु राज्य से बाहर माना गया हैं।यह बात किसी बिहारी राजनेता ने नही कही हैं यह बाते एसोचैम रिसर्च ब्यूरो की आयी रिपोर्ट में सामने आयी हैं। जिसमें वर्ष 2008-2009 के तिमाही में पोजेटिव ग्रोथ के क्षेत्र में बिहार देश में दूसरा स्थान प्राप्त किया हैं।बिहार बदल रहा हैं ये बाते भले ही मीडिया में सुर्खिया नही बन सका लेकिन देश वासियों के लिए गर्व की बात हैं। उसका एक सौतेला भाई जो आज तक भारतीय होने पर गर्व महसूस करता था अन्य भाईयों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की बात सोचने लगा हैं।इस खबङ से बिहारियों को इतराने की जरुरत नही हैं अभी भी बहुत कुछ करने को बाकी हैं।बिक्रंमशीला,नालदा विश्वविधालय और सम्राट आशोक की धरोहर आज भी आप सबों को पुकार रही हैं।चलिए देश के ही खातिर बिहार को गौरवशाली इतिहास की और लौटने में मदद करे।

रविवार, फ़रवरी 01, 2009

जो खबङे सुर्खियां न बन सकी

पिछले दो माह से जारी राजनैतिक और आर्थिक उथल पुथल के बीच एक ऐसी खबङ भी आयी जो सकून देने वाली थी।लेकिन मीडिया को इस खबङ में न तो गलैमर दिख रहा था और ना ही रोमांश लेकिन प्रिंट मीडिया जो आज भी अपने को आम भारतीय का हमदर्द होने का दंभ भरती हैं उनके कलम की सियाही क्यों सुख गयी।चलिये उस ऐतिहासिक खबङ की औऱ चलते हैं जिसके बाङे में देश के जाने माने कानूनविद और पुलिस पदाधिकारियों का कहना हैं कि दरोगा राज का अंत हो गया जिसके बल पर अंग्रेजी हुकूमत की मानसिकता आज भी जीवित थी।शीतकालीन सत्र में केन्द्र सरकार ने भारतीय दंड संघिता की धारा 41 में संशोधन से सम्बन्धित एक विधेयक पेश किया था जिसमें सात साल से कम सजा वाले धाराओं में पुलिस किसी भी व्यक्ति को कोर्ट के आदेश के बगैर गिरफ्तार नही कर सकती हैं।इस विधेयक पर राष्ट्रपति का हस्ताक्षर हुए एक माह से अधिक हो गया हैं।इस संशोधन का वकीलों द्वारा विरोध करने की खबङे आयी हैं लेकिन इस पर विस्तृत चर्चाये न तो किसी चैनल पर दिखने को मिला और ना ही किसी अखबार ने इस खबङ को कोई तब्जों दिया।सच कहे तो मैं भी इस खबङ को हलके में ही ले रहा था लेकिन जिस दिन इस विधेयक पर राष्ट्रपति महोदिया का दस्तख्त हुआ उसी रात लगभग 12 बजे मेरे एक आई0पी0एस0 मित्र का फोन आया आज देश की जनता को असली आजादी मिली हैं।मैं समझा नही सका क्यों कि आधे घंटे पहले ही सभी खबङिया चैनल देख कर सोने आया था।मुझे लगा चंद मिनटों में ऐसी कौन सी बाते हो गयी।मैंने कहा पहेली मत समझाओं बताओं आखिर हुआ क्या हैं बङी भावूक होकर उसने कहा संतोष चाह कर भी दरोगा के गुडागर्दी को रोक नही पा रहे थे उसको इतना पावर था कि किसी को भी किसी भी मामले में पुछताछ करने के बहाने या फिर आलाधिकारियों,नेताओं को खुश करने के लिए गिरफ्तार कर जेल भेज देता हैं।देश में जितने भी मामले दर्ज होती हैं उसमें महज पांच से सात प्रतिशत मामले में ही सजा हो पाती हैं।और रोजाना देश में हजारों निर्दोश लोगों को संदेह के आधार पर जेल भेजी जा रही हैं।पुलिस आरुषि के पिता की खोई हुई प्रतिष्ठा ळौटा सकती हैं।ऐसे हजारो आरुषि के पिता भाई,और रिश्तेदार हैं जो पुलिस के जुल्म के शिकार आये दिन हो रहे हैं।और रही सही कसर मीडिया वाले पूरी कर देते हैं।मेरा कानून कहता हैं कि सौ गुनाह गार छुट जाये लेकिन एक निर्दोश को सजा नही मिलनी चाहिए।आप अपने आस पङोस में देखे तो निर्दोश जेल के सलाखों में खुट खुट कर मर रहा हैं और अपराधी छुट्टा धुम रहा हैं।ऐसे में सरकार के इस पहल को और प्रचारित करने की जरुरत हैं और इस पर पूरे देश में सार्थक बहस होनी चाहिए क्यों कि एक बङा तवका इस कानून के गजट प्रकाशन पर रोक लगाने को लेकर लोबी बाजी कर रहा हैं।

रविवार, जनवरी 18, 2009

मीडियाकर्मीयो के आत्म मंथन का वक्त आ गया हैं।

इतिहास की और देखे तो पत्रकारिता के संदर्भ में बङी बङी बाते लिखी गयी हैं। प्रेस की आजादी पर जब किसी हुकूमत ने सिकंजा कसने का प्रयास किया आम लोगो तक की तीखी प्रतिक्रियाये सामने आयी हैं। प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने का अर्थ है अपने पैरों में बेङिया डालना (जार्ज सदरलैंड) स्वतंत्र प्रेस के बिना स्वतंत्र देश की कल्पना नहीं की जा सकती हैं। (ब्लैक स्टोन) ऐसी कई वाकिया हैं जब इस तरह की प्रतिक्रियायें सामने आयी।लेकिन इस बार स्थिति थोङी भिन्न हैं,पिछले कई माह से मीडिया पर सिंकजे कसने की बात सामने आ रही हैं।लेकिन पहली बार मीडियाकर्मीयों को समाज से वह समर्थन नही मिल पा रहा हैं। यह वेहद गम्भीर स्थिति हैं क्यों कि मीडिया समाज के भरोसे पर काम करती हैं अगर भरोसा खत्म हो गया तो फिर कुछ नही बचेगा।ऐसे हलात में मनमोहन सिंह को कानून बनाने की जरुरत भी नही पङेगी।सेल्फ डिसीपीलीन की बात की जा रही हैं।ऐसे जानवरो से जिन्हे मानव के खून का स्वाद चखने की आदत पङ गयी हैं।उलटे अब इस सेल्फ डिसीपीलीन नामक हथियार का उपयोग प्रबंधक वैसे पत्रकारो के खिलाफ कर रहे हैं जो पत्रकारिता के मर्म को जीवित रखने के लिए संघर्ष कर रहा हैं।मेरा मानना हैं कि बाजारबाद के इस दौङ में जब सब कुछ बाजार ही तय करती हैं तो मीडियाकर्मीयों से आरजु विनती हैं कि इस लङाई में अपनी प्रतिष्ठा दाव पर मत लगाये।चंद पैसे के बल पर रोजाना सैकङो पत्रकारों के भावनाओं को अपने पैर की जूति मानने वाले मीडिया हाउस के प्रबंधक को सामने आने दे जिन्होंने अखबार और चैनल के संपादक को अपने हरम की पटरानी बनाकर रख दिया हैं।माफ करना मीडिया के बंधु अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करने का वक्त आ गया हैं।या तो आप वक्त से समझौते करके काम करे और सम्भव हो तो कुछ अपने जमीर के लिए समय समय पर कुछ कुछ करते रहे।नही तो हल्ला बोले चाहे इसके लिए जो भी माध्यम अपनाना पङे।कागज के टुकङे पर लिखी बात भी बङे बङे अखवार और चैनलो पर चलने वाली खबङों से कही अधिक प्रभावि हो सकता हैं। हल्ला बोल आज के सम्पादकीय टीम पर,प्रबंधन पर और देश के पोलिटिसियन पर। जनता आप के साथ हैं।

सोमवार, जनवरी 05, 2009

जुबानी कसरत कब तक

हमारे सारे विकल्प खुली हैं—प्रणव मुखर्जी संयम को कमजोरी नही समझे पाकिस्तान-प्रधानमंत्री आतंकवाद के खिलाफ लङाई में सरकार और पूरा विपक्ष एक साथ हैं-आडवाणी पीएम सख्त,कहा-आतंक के खिलाफ किसी भी हद तक लङेंगे।– आदरनीय प्रधानमंत्री जी अब तो बस किजिए जितनी पीङा मुंबई में हुए आतंकी घटनायों से नही हुई उससे कही अधिक पीङा आप सबों के अर्नगल बयान बाजी से हो रही हैं। आम भारतीय अपमान के साथ जीने की कला सीखने लगा हैं।मेहरवानी करके अमेरिका की बात न करे।अमेरिका के बल पर भले ही आप की नयी अर्थनीति चल रही हो लेकिन आम भारतीयों के जीवन शैली से अमेरिकी मानसिकता अभी भी कोसो दुर हैं।अमेरिकी परस्त बने रहना आप की मजबूरी हो सकती हैं आम भारतीय को इसकी मजबूरी नही हैं। आम भारतीयों ने कभी गांधी के रुप में तो कभी सचिन के रुप में तो कभी कल्पना चावला के रुप में विश्व के मानस पटल पर भारतीयता का परचम लहराता रहा हैं।और जलील मत करे समय आयेगा तो एक आम भारतीय अपनी प्रतिभा और कौशल से अमेरिका की दोगली नीति और चीन के अहंकार का मुंहतोङ जबाव देगा।आप अपनी राजनीत करे और देश के सफल प्रधानमंत्रीयों की सूची में नाम दर्ज कराये इन्ही शुभकामनाये के साथ आपका आम भारतीय

शुक्रवार, दिसंबर 19, 2008

मेरे पागल पिया

मैं लव्जों में कुछ भी इजहार नही करती इसका मतलब ये नही की मैं तुझे प्यार नही करती चाहती हुँ मैं तुझे आज भी पर , तेरी सोच में अपना वक्त वरवाद नही करती तमाशा न बन जाये कही मोहब्बत मेरी इसलिए अपने दर्द को नामोदार नही करती जो कुछ मिला है उसी में खुश हु मैं, तेरे लिए खुदा से तकरार नही करती, पर कुछ तो बात हैं तेरी फितरत में जालिम, वरना मैं तुझे चाहने की खता बार बार नही करती। सामाजिक मान्यताओं के द्वन्द से जुझ रही यह एक ऐसी लङकी की व्यथा हैं जिसका होने वाला पति शादी के पूर्व साथ साथ शादी की खरीदारी करना चाहता हैं।एक दूसरे के पसंद का सेरवानी और लहंगा चुनङी लेना चाहता हैं। लेकिन सामाजिक मान्यताओं के आगे विवश हैं,क्यों कि इस युग में भी इसकी इजाजत नही हैं।शादी की खरीदारी को लेकर अभी भी लङकियों के पसंद का कोई मतलव नही हैं।लङके वाले आज भी शादी की खरीददारी में होने वाली बहु या फिर भाभी की दखल अंदाजी पसंद नही करती हैं।लङके को थोङी आजादी अवश्य मिली हैं अब वे अपने पंसद के कपङे और अन्य सामग्री खुद खरीदने लगे हैं।लेकिन जिसके साथ जिंदगी की नयी पारी शुरु करनी हैं उसकी पंसद का आज भी कोई मतलव नही हैं।किस कलर और डीजाईन का टीवी,फ्रिज,वाशिंग मशीन,कार और किचेन की सामग्री लेनी हैं आज भी इसकी खरीदारी में लङकी की राय नही ली जाती हैं।इस मामले में कोई लङका अपने होने वाली पत्नी के इक्छा का ख्याल भी करता हैं तो दोनों पक्ष इस मामले में उसकी दखलअंदाजी पसंद नही करते हैं।खुलेपन के इस दौङ में भी 99 प्रतिशत लङके और लङकिया जीवन शादी अपने पसंद से खोजने के रिक्स से आज भी बच रहे हैं।इसका यह मतलव कतई नही हैं कि आज के अभिभावक अपनी दलील जिस तरह से उनके अभिभावक ने थोपा उसी तरह से आप भी बच्चों पर थोपते रहे।टेकनोलोजी बदली हैं बच्चें आत्मनिर्भर हो रहे हैं।ऐसे में बच्चों की राय को अहमियत दी जानी चाहिए नही तो आने वाले समय में जीवन साथी पंसद करने के अधिकार पर भी सवाल खङे होने लगेगे।और उस हलात में अभिभावक की यह आखिरी बंदिश भी तास की पत्तों की तरह बिखर जायेगा।समय के साथ साथ अपने मान्यताओं में बदलाव को स्वीकार करते हुए चलने की आदत आज के अभिभावकों को ङालनी चाहिए।

रविवार, दिसंबर 07, 2008

नेता जी आपके रहबरी का सवाल हैं

दिलों में लावा तो था लेकिन अल्फाज नहीं मिल रहे थे । सीनों मे सदमें तो थे मगर आवाजें जैसे खो गई थी। दिमागों में तेजाब भी उमङा लेकिन खबङों के नक्कारखाने में सूखकर रह गया । कुछ रोशन दिमाग लोग मोमबत्तियों लेकर निकले पर उनकी रोशनी भी शहरों के महंगे इलाकों से आगे कहां जा पाई । मुंबई की घटना के बाद आतंकवाद को लेकर पहली बार देश के अभिजात्य वर्गों की और से इतनी सशंक्त प्रतिक्रियाये सामने आयी हैं।नेताओं पर चौतरफा हमला हो रहा हैं। और अक्सर हाजिर जवाबी भारतीय नेता चुप्पी साधे हुए हैं।कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि आजादी के बाद पहली बार नेताओं के चरित्र पर इस तरह से सवाल खङे हुए हैं।इस सवाल को लेकर मैंने भी एक अभियाण चलाया हैं। उसकी सफलता आप सबों के सहयोग पर निर्भर हैं।यह सवाल देश के तमाम वर्गो से हैं। खेल की दुनिया में सचिन,सौरभ,कुबंले ,कपिल,और अभिनव बिद्रा जैसे हस्ति पैदा हो रहे हैं । अंतरिक्ष की दुनिया में कल्पना चावला पैदा हो रही हैं,।व्यवसाय के क्षेत्र में मित्तल,अंबानी और टाटा जैसी हस्ती पैदा हुए हैं,आई टी के क्षेत्र में नरायण मुर्ति और प्रेम जी को कौन नही जानता हैं।साहित्य की बात करे तो विक्रम सेठ ,अरुणधति राय्,सलमान रुसदी जैसे विभूति परचम लहराय रहे हैं। कला के क्षेत्र में एम0एफ0हुसैन और संगीत की दुनिया में पंडित रविशंकर को किसी पहचान की जरुरत नही हैं।अर्थशास्त्र की दुनिया में अमर्त सेन ,पेप्सी के चीफ इंदिरा नियू और सी0टी0 बैक के चीफ विक्रम पंडित जैसे लाखो नाम हैं जिन पर भारता मां गर्व करती हैं। लेकिन भारत मां की कोख गांधी,नेहरु,पटेल,शास्त्री और बराक ओमावा जैसी राजनैतिक हस्ति को पैदा करने से क्यों मुख मोङ ली हैं।मेरा सवाल आप सबों से यही हैं कि ऐसी कौन सी परिस्थति बदली जो भारतीय लोकतंत्र में ऐसे राजनेताओं की जन्म से पहले ही भूर्ण हत्या होने लगी।क्या हम सब राजनीत को जाति, धर्म और मजहब से उपर उठते देखना चाहते हैं।सवाल के साथ साथ आपको जवाब भी मिल गया होगा। दिल पर हाथ रख कर जरा सोचिए की आप जिन नेताओं के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं उनका जन्म ही जाति धर्म और मजहब के कोख से हुआ हैं और उसको हमलोगो ने नेता बनाया हैं।ऐसे में इस आक्रोश का कोई मतलव हैं क्या। रगों में दौङने फिरने के हम नही कायल । ,जब आंख ही से न टपके तो फिर लहू क्या हैं। ई0टी0भी0पटना

शुक्रवार, नवंबर 28, 2008

इंडियन्स भारतीय को अपने हालात से निपटने दो--

बाटला हाउस से चला मेरा सफर मालेगांव होते हुए आज सुबह होटल ताज पहुंचा हैं।चारो और गोलियो की तरतराहट के बीच मैं अमर सिंह,मुलायम सिंह यादव,लालू प्रसाद के साथ साथ गृहमंत्री शिवराज पाटिल,लालकृष्ण आडवानी और अपने मराठी मानुस पर दंभ भरने वाले राज ठाकरे ।गोली का जबाव गोली से देने वाले महाराष्ट्र के गृंहमंत्री आर आर पाटिल, सोनिया गांधी ,मनमोहन सिंह और बटला हाउस में मारे गये छात्र को लीगल ऐड देने की बात करने वाले अलीगढ विश्वविधालय के कुलपति को होटल से निकल रहे लहुलुहान लोगो के बीच बेशब्री से मैं खोज रहा था। आधे घंटे बीत गये धीरे धीरे दिन बीतने लगा लेकिन भारत मां के ये सच्चे सपूतों कही दिखाय़ी नही दे रहे थे।ऐसा लग रहा था की भारत आज सपूत विहीन हो गया हैं। एन0एस0जी0और भारतीय सेनाओं द्वारा सुरक्षित निकाले जा रहे विदेशी सैनानियों से इन सपूतों का हाल जानने के लिए देर शाम तक प्रयास करता रहा लेकिन सबों का बस एक ही जबाव था नो कौमेंट्स। थक हारकर मैं ताज के सामने मुरझाये केंकटस के पेङ के सहारे बैठकर इन सपूतो के हाल पर सोचने लगा।किस हाल में होगे हमारे यह सपूत जिसने बाटला इनकाउण्टर में शरीद हुए मोहन शर्मा के शहादत पर चंद वोट के लिए सवाल खङा कर दिया था।आज तो मुंबई पुलिस के कई जाबांज अधिकारी शहीद हुए हैं भारतीय मानस इस मसले पर इनकी राय जानने के लिए बैचेन हैं।आज उन पत्रकारों के कलम का क्या होगा जो मुठभेंङ पर सवाल खङा कर अपना सेकुलर चेहरा सामने लाने के लिए बैचेन रहते हैं अभी तो लाईभ कभरेज पर मुंबई पुलिस के शहीद हुए जाबांजों के शहादत पर कसिदे गढ रहे है पता नही कल ये क्या लिखेगे। तभी होटल के एक कमरे से महाराष्ट्र के गृहमंत्री के चिल्लाने की आवाज आयी यह हमला मंबुई पर नही देश पर हैं। मुझे लगा कि वाकय हमारे देश के सपूत संकट में हैं तभी बरबस याद आया कि अंदर फंसे सपूतों में बैशाखी पर चल रहे मनमोहन का क्या हाल होगा इस हालात में भी अपनी कुर्शी को बचाये रखने के लिए कोई न कोई डील जरुर कर रहे होगे।वही दूसरी और हर किसी की जान सासत में हैं उस हालात में भी सोनिया मैडम को सिर्फ राहुल और प्रियका की चिन्ता सता रही होगी औऱ आडवानी जी प्रधानमंत्री की कुर्शी पाने के लिए संसद पर हुए हमले को देश के स्वाभीमान से जोङने के जुगार में लगे होगे।तभी जोङदार धमका हुआ आंख खुली तो सामने ताज होटल के कमरो से आग की लपटे निकलते दिखाई दी । मैं कुछ सोच पाता इसी बीच हाथ में तख्ति लिये कुछ कांलेज के छात्र काली पट्टी बांधे मां मां करते हुए पास से निकल गये।तख्ति पर गौर किया तो उस पर कई सवाल हमारे सपूतों से पूछा गया हैं।बाटला कांड के बाद वोट बैंक के लिए जिस तरीके से मुस्लिम तुष्टीकरण का दौङ शुरु हुआ और उससे निपटने के लिए सरकार ने हिन्दू आतंकवादी को स्थापित करने के लिए मंबुई एटीएस को पूरी छूट दे दी जिसका नतिजा आज सामने हैं।पहली बार आतंकियों ने वो कर दिया जिसकी कल्पना भी नही की जा सकती।और इस पर नियत्रंण करने के लिए गठित एटीएस के पास मुंबई को उङाने के लिए हो रही इतनी बङी साजिस की भनक तक नही थी।दूसरी तख्ति पर लिखा था, एटीएस अपनी नकामी को छिपाने के लिए अपने आलाधिकारी तक को दाव पर लगा दिया।वही मोहन शर्मा के शहादत के बाद उठे सवालो ने उन चंद जाबांज सिपाही का मनोबल तोङ दिया जिसके बल पर आज तक हमने दहशत गर्द के मनोबल को तोङते रहे।ऐसे कई सवाल तख्ति पर लिखा था इसी बीच खून से लतपथ बीस साल का एक युबक हाथ में सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्ता हमारा का तख्ति लिए पास से गुजर रह था बरवस लगा की इस युवक को पहले कही देखा हैं सामने गया तो देखा यह तो वही राहुल हैं जिसे मार कर पूरी मुंबई पुलिस गौरवान्वित महसूस कर रहे थे।मैंने पूछा तुम मंबई के इस जनाजे मैं क्यों शामिल हो गये कहा यही बात तो है सब मिट गये इस जहां से लेकिन कुछ बात यही हैं कि आज भी हमारी नामों निशा बाकी हैं।राहुल की बात सुनकर मुझे लगा की मैं ताज की घटनाओं पर कुछ ज्यादा ही भावूक हो गया था।झटपट में उठा औऱ दूसरे सफर के लिए निकल पङा।